मध्यकाल में साहित्य भाषा के रूप में ब्रज का विकास (टिप्पणी)

मध्यकाल में साहित्य भाषा के रूप में ब्रज का विकास (टिप्पणी)
उत्तर 

        ब्रजभाषा का संबंध ब्रजमंडल या ब्रज प्रदेश से है जिसके अंतर्गत मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बंदायु और बरेली सहित आसपास का काफी बड़ा क्षेत्र शामिल है। 

        इस भाषा का विकास पुरानी हिंदी के आसपास से ही किसी न किसी रूप में दिखाई देने लगता है। ब्रज भाषा का विकास शौरसैनी अपभ्रंश से माना गया है। जिसका  स्वतंत्र रूप से  प्रथम प्रयोग अमीर खुसरो ने  किया था।

        सूरदास ब्रजभाषा के सफलतम कवि है हालांकि सूरदास के पूर्व ब्रजभाषा कविता में प्रयुक्त होने लगी थी, किंतु इसे चरमोत्कर्ष पर ले जाने का श्रेय सूरदास को है। भाषा वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस प्रकार जायसी और तुलसी को पाकर अवधी धन्य हो गई उसी प्रकार सूर को पाकर ब्रज भी धन्य हो गई।

        सूरदास ने मथुरा, आगरा को ब्रजभाषा के अपने साहित्य में लाकर इसे काव्य लालित्य और अर्थ गौरव की भाषा बना दी। उन्होंने विनय के पद, वात्सल्य के पद, श्रंगार के पद एवं इतिवृतात्मक शैली के पद लिखकर ब्रज भाषा के बहुमुखी अभिव्यंजन क्षमता का परिचय दिया।
 निरखत श्याम सुंदर के बार-बार लावती छाती।
 लोचन–जल कागद–मासि  मिलिके हवै गई श्याम श्याम की बाती।।

         तुलसीदास जी ने भी अपनी कवितावली और विनय पत्रिका ब्रज भाषा में लिखी। रहीम और रसखान ने इस साहित्यिक ब्रजभाषा को आमजन के करीब लाकर रख दिया रसखान की पंक्ति है—
जा दिन ते निरख्यो नंदनंदन कानि, तनिघर बंधन छुट्यो।

         रीतिकाल में केशव दास, मतिराम, पद्माकर, चिंतामणि आदि ने इस ब्रजभाषा को शास्त्रीय विवेचन की भाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया।

        बिहारी, घनानंद, देव आदि कवियों ने इस ब्रज भाषा को श्रृंगारिक लालित्य की भाषा बना दी। बिहारी की ब्रजभाषा में ब्रजभाषा के सारे गुण मौजूद हैं–
 देखत बनै न देखिबो, अनदेखे अकुलाहि।
 इनं दुनिया अंखियन को, सुख सिर ज्योंई नांही।।

         इसी प्रकार आधुनिक युग में भारतेंदु, प्रेमधन, रत्नाकर आदि ने साहित्यिक भाषा के रूप में ब्रजभाषा को जारी रखा। किंतु द्विवेदी युग में ब्रजभाषा अपना साहित्यिक सिंहासन को बचा नहीं पाई।

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