आरंभिक हिंदी की प्रमुख विशेषताओं का परिचय दीजिए।


आरंभिक हिंदी की प्रमुख विशेषताओं का परिचय दीजिए। 
उत्तर 

        अपभ्रंश तथा अवहट्ट के बाद तथा खड़ी बोली के साथ हिंदी के मानक स्वरूप से पहले की अवस्था आरंभिक हिंदी कहलाती है। जिसका काल लगभग तेरहवीं—चौदहवीं शताब्दी का है। जब पहली बार हिंदी तथा उसकी बोलियां स्वतंत्र रूप से प्रकट होने लगी थी।

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  •  आरंभिक हिंदी की प्रमुख विशेषताएं
    •  आरंभिक हिंदी में प्रायः ध्वनिया वही है जो अपभ्रंश तथा अवहट्ट में मिलती हैं।इसके साथ ही आरंभिक हिंदी में संयुक्त स्वर ऐ, औ, आई, इया आदि का प्रचलन बढ़ा।
    • कुछ स्वरों का हस्वीकरण हो गया तो कुछ स्वरों का दीर्घीकरण हो गया जैसे दीपावली>दिवारी (हस्वीकरण) मनुष्य>मानुख।
    • आमतौर पर शब्द उकारांत होने लगे इसलिए पुरानी हिंदी या आरंभिक हिंदी को उकारबहुला भाषा माना गया है। जैसे पापु, लेहु, कछु आदि।
    • क्षतिपूर्ति दीर्घिकरण आरंभिक हिंदी की प्रमुख विशेषता, जहां अवहट्ट में संयुक्त व्यंजनों का विकास हुआ वहीं अब द्वित्व में भी केवल एक व्यंजन में स्वर बढ़ गया और दूसरा लुप्त होने लगा। जैसे पृष्ठ — पिट्ठ—पीठ, पर्ण—पण—पान।
    • संज्ञाओं के सविभक्तिक रूप मिलने लगभग समाप्त तथा परसर्गो का विकास काफी तेजी से हुआ।
    • आरंभिक हिंदी में बहुवचन बनाने के नियम स्पष्ट होने लगे। पुल्लिंग में ‘ए’ या ‘अन’ जोड़कर (बेटा>बेटे) तथा स्त्रीलिंग में ‘अन’, ‘न्ह’, ‘ऐ’, ‘आ’ आदि जोड़कर (सखी>सखियन, अखियां>आखियां)
    • नपुंसक लिंग का प्रयोग पहले ही समाप्त। पुरानी हिंदी में लिंग भेद के अनुसार शब्दों का स्वरूप निश्चित होने लगा तथा स्त्रीलिंग शब्द प्रायः इकारांत होने लगे। जैसे— आंखि, औरति, दुल्हिनी।
    • संज्ञा के अनुसार विशेषणों के लिंग वचन इत्यादि परिवर्तित होने लगे। उदाहरण पीतवसन>पीरोवसन।
    • देशज शब्द भंडार में वृद्धि होने लगी। साथ ही इस्लाम के आगमन से विदेशज शब्द भी बढ़ने लगे।
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         समग्र रूप से यह कहा जा सकता है कि पुरानी हिंदी वास्तविक रूप से हिंदी की आरंभिक प्रवृत्तियों को धारण करने वाले भाषिक स्थिति है। सरलीकरण और वियोगीकरण की जो प्रक्रिया पाली, प्राकृत, अपभ्रंश तथा अवहट्ट में विकसित हुई वह पुरानी हिंदी में आकर सीधे-सीधे आधुनिक आर्यभाषा के रूप में प्रकट हुई।

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