अपभ्रंश और प्रारंभिक हिंदी के व्याकारणिक स्वरूप में प्रमुख अंतर।
उत्तर
अपभ्रंश मध्यकालीन आर्य भाषाओं की तीसरी अवस्था है जो आगे चलकर 11वीं 12वीं शताब्दी में आरंभिक हिंदी में प्रयवसित हो जाती है तथा आरंभिक हिंदी से ही आधुनिक आर्य भाषा का विकास माना जाता है। इस प्रकार आरंभिक हिंदी में मुख्यता अपभ्रंश के समान ही व्याकरणिक विशेषताएं हैं साथ ही कुछ नए आयाम भी शामिल हुए हैं।
अपभ्रंश आरंभिक हिंदी के व्याकरण स्वरूप में अंतर--
- परसर्गों का आरंभिक विकास अपभ्रंश में तथा संबंध कारक में ‘का’ परसर्ग का विकास, वही आरंभिक हिंदी में परसर्गो का और अधिक विकास के साथ कर्म कारक के लिए ‘को’ तथा अधिकरण के लिए ‘पर’ परसर्ग प्रमुख घटना।
- अपभ्रंश में नपुंसक लिंग कहीं-कहीं विद्यमान रहा (नागर अपभ्रंश), किंतु आरंभिक हिंदी में नपुंसक लिंग पूर्ण रूप से समाप्त हो गया।
- अपभ्रंश में द्विवचन का लोप हो गया किंतु आरंभिक हिंदी में बहुवचन बनाने के नियम स्पष्ट होने लगे। पुल्लिंग से बनाने के लिए ‘ए’, ‘अन’ प्रत्यय तथा स्त्री लिंग से बनाने के लिए ‘अन’, ‘न्ह’ प्रत्यय का प्रयोग।
- अपभ्रंश में कुछ आरम्भिक सर्वनाम (महार, तुहार, तुम्हें) दिखाई देते हैं वही आरंभिक हिंदी में आधुनिक हिंदी के सभी सर्वनाम दिखाई देते हैं। जैसे वे, कौन, जो, तेरा इत्यादि।
- अपभ्रंश में संख्यावाची विशेषण का विकास हुआ (दस, बारह, बीस), वही आरंभिक हिंदी में कृदंतीय विशेषणों की वृद्धि होने लगी। जैसे पीतवसन>पीरोवसन।
- अपभ्रंश में कृदंतीय क्रियाओं का विकास वही आरंभिक हिंदी में इसके साथ साथ संयुक्त क्रियाओं का विकास तेज हुआ।
इस प्रकार अपभ्रंश तथा आरंभिक हिंदी को एक क्षीणरेखा अलग करती है।