आरंभिक हिंदी की व्याकरण की विशेषताएं।

आरंभिक हिंदी की व्याकरण की विशेषताएं।
उत्तर 
        
        आरंभिक हिंदी एक समूह भाषा है जिसमें आज के हिंदी प्रदेश की 18 बोलियां समाहित है यह अपभ्रंश अवहट्ट के विभिन्न रूपों से निसंपन्न हैं। आरंभिक हिंदी का काल मुख्यता 13 वीं सदी से 14 वीं सदी तक माना जाता है।

        संस्कृत की सहयोगात्मक प्रकृति से वियोगात्मक की प्रकृति पाली, प्राकृत में ही आरंभ हो गई थी। यह प्रवृत्ति आरंभिक हिंदी में स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।

आरंभिक हिंदी की व्याकरण की विशेषताएं निम्नलिखित है -
  • संज्ञाओं के सविभक्तिक रूप मिलने लगभग समाप्त हो गए तथा आरंभिक हिंदी में परसर्गों का विकास काफी तेजी से हुआ।
  •  आरंभिक हिंदी में वचन बनाने के नियम स्पष्ट होने लगे। पुल्लिंग में बहुवचन के लिए ‘ए’ तथा ‘अन’ प्रत्यय जुड़ने लगे। जैसे बेटा>बेटे, बेटा>बेटन।
  •  स्त्रीलिंग में एकवचन से बहुवचन बनाने के लिए कई प्रत्यय विकसित हुए — अन, न्ह, ऐं, आं आदि। जैसे सखी>सखियन, अंखियां आंखियां।
  • नपुंसक लिंग पहले ही समाप्त, आरंभिक हिंदी में लिंग भेद के अनुसार शब्दों का स्वरूप निश्चित होने लगा और स्त्रीलिंग शब्द प्राय इकारांत होने लगें जैसे आंखि, आगि, औरति, दुलहिनी।
  • आधुनिक हिंदी के सभी सर्वनाम लगभग आरंभिक हिंदी में दिखाई देने लगे।
  • आरंभिक हिंदी में संज्ञा के अनुसार विशेषणों के लिंग, वचन इत्यादि परिवर्तित होने लगे। जैसे उच्च>ऊँच/ऊँचो/ऊँची/ऊँचे।
  • हिंदी में प्राय वही  ध्वनियां वही थी जो अपभ्रंश/अवहट्ट में मिलती है किंतु कुछ नई ध्वनियों का भी विकास हुआ जिसमें ‘ए’, ‘औ’, ‘आई’, ‘आउ’, ‘इया’ आदि।
  • इस्लाम के आगमन से आरंभिक हिंदी के शब्द भंडार में देसी शब्दों के साथ-साथ विभिन्न विदेशी शब्द भी सम्मिलित हुए।

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