आरंभिक हिंदी के विकास में अपभ्रंश की भूमिका को स्पष्ट कीजिए।
उत्तर
एक भाषा के विकास में दूसरी भाषा की भूमिका निर्धारित करने के लिए निकटता और समानता का सिद्धांत अपेक्षित है। हम जानते हैं कि हिंदी का मूल स्त्रोत भारत की प्राचीन आर्य भाषा संस्कृत है। हिंदी की अधिकांश भाषिक प्रवृतियां, ध्वनि व्यवस्था, पद संरचना, वाक्य विन्यास आदि संस्कृत के अनुसार है।
हिंदी के अनंत शब्द भंडार का अधिकांश हिस्सा संस्कृत से विरासत के रूप में मिला है किंतु यह सारी चीजें हिंदी को संस्कृत से सीधे-सीधे प्राप्त नहीं हुई यह कार्य अपभ्रंश के माध्यम से ही हो सका है। अतः हम अपभ्रंश को प्राचीन आर्य भाषा संस्कृत तथा आधुनिक आर्य भाषा हिंदी के मध्य सेतु मान सकते हैं।
हिंदी के विकास में अपभ्रंश के योगदान के संदर्भ में गौर करें तो संस्कृत, पाली एवं प्राकृत आर्य भाषाओं में संश्लिष्टता की पकड़ ढीली पड़ने लगी थी और विशिष्टता के लक्षण प्रकट होने लगे थे। यही विशिष्टता अपभ्रंश में पूरी तरह स्पष्ट होने लगी इस प्रकार हिंदी में विशिष्टता के लक्षण अपभ्रंश से ही प्राप्त हुए हैं।
संस्कृत की बहुत सी कारक विभक्तियां सरलीकरण के प्रयास के कारण पाली, प्राकृत में लुप्त हो गई। फलतः कारकत्व का बोध कराने के लिए अपभ्रंश में परसर्गो का प्रयोग शुरू हुआ जो हिंदी में बड़े पैमाने पर होने लगा।
हिंदी क्रियाओं की संपूर्ण संपदा अपभ्रंश से ही मिली है। प्रारंभिक हिंदी की अधिकांश धातुएं अपभ्रंश काल में ही स्वरूप ग्रहण कर चुकी थी जैसे खा>रखा तोड़े>तुट आदि।
अपभ्रंश के सर्वनाम हऊ, हो, मइं, मो, मोहि आदि इसी रूप में या कुछ परिवर्तन के साथ प्रारंभिक हिंदी में प्रयुक्त होते रहे।
संस्कृत के तीन लिंगों एवं तीन वचनों की जगह अपभ्रंश में दो लिंग (पुल्लिंग व स्त्रीलिंग) तथा दो वचन (एकवचनव बहुवचन) रह गए। हिंदी में भी दो लिंगो तथा दो वचनों की व्यवस्था विकसित हुई।
शब्दकोश स्तर पर अपभ्रंश का हिंदी में अमूल्य योगदान है संस्कृत के तत्सम शब्दों का अपभ्रंश में तद्भवीकरण हुआ। अपभ्रंश की यह तद्भव संपदा हिंदी को अनायास प्रदाय के रूप में प्राप्त हुई है।
इस प्रकार हिंदी के विकास में अपहरण का महत्वपूर्ण स्थान है योगदान है।