अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएं (टिप्पणी)।
उत्तर
अपभ्रंश मध्यकालीन आर्य भाषा की तीसरी अवस्था का नाम है उसका अर्थ होता है भ्रष्ट भाषा। इसका समय पाली, प्राकृत के बाद लगभग 500 ईसवी में प्रारंभ होता है तथा लगभग 11 वीं 12 वीं शताब्दी में यह पुराने हिंदी में पर्यवसित हो जाती है।
अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएं
उत्तर
अपभ्रंश मध्यकालीन आर्य भाषा की तीसरी अवस्था का नाम है उसका अर्थ होता है भ्रष्ट भाषा। इसका समय पाली, प्राकृत के बाद लगभग 500 ईसवी में प्रारंभ होता है तथा लगभग 11 वीं 12 वीं शताब्दी में यह पुराने हिंदी में पर्यवसित हो जाती है।
अपभ्रंश की व्याकरणिक विशेषताएं
- संज्ञा तथा कारक व्यवस्था
- निर्विभक्तिक प्रयोग आरंभ जिसमें शब्दों को केवल प्रतिपादक के रूप में प्रयुक्त किया जाता था या एक विभक्ति से कई कारकों का काम लिया जाता था।
- अपभ्रंश में पहली बार परसर्गों का स्वतंत्र विकास हुआ जैसे कर्म कारक के लिए ‘ही’ संप्रदान के लिए ‘तेहि’।
- वचन व्यवस्था
- संस्कृत के तीनों वचनों के स्थान पर अपभ्रंस में दो वचन मिलते हैं यथा—एकवचन तथा बहुवचन
- लिंग व्यवस्था
- संस्कृत का नपुंसक लिंग का प्रयोग लुप्त (कहीं-कहीं सीमित मात्रा में) तथा नपुंसकलिंग शब्द प्रायः पुल्लिंग में शामिल । यथा—दो लिंग पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग
- विशेषण व्यवस्था
- संज्ञा के लिंग और वचन के अनुसार विशेषण का परिवर्तित होना अपभ्रंश में भी स्वीकार्य तथा संख्यात्मक विशेषणों का विकास जैसे दस, बारह, तीस इत्यादि
- काल सरंचना
- काल सरंचना में अपभ्रंश की तीन प्रवृत्तियां दिखाई देती है वर्तमान काल, भूतकाल, भविष्य काल
- सर्वनाम व्यवस्था
- सर्वनाम के रूपों में जटिलता बनी हुई किंतु इनकी संख्या काफी कम है। ‘तुम्हें’ सर्वनाम का विकास।
- क्रिया संरचना
- क्रियाएं कई आधारों पर विकसित होने लगी, साथ ही कुछ नए धातु रूप भी विकसित हुए। कृदंतो पर आधारित कुछ नई क्रियाएं प्रचलित हुई। जैसे देखत, चाखत आदि।