अपभ्रंश और अवहट्ट का पारस्परिक संबंध (टिप्पणी)

अपभ्रंश और अवहट्ट का पारस्परिक संबंध (टिप्पणी)  
उत्तर— 
        अपभ्रंश और अवहट्ट मध्यकालीन आर्य भाषाओं की अंतिम अवस्था का नाम है। अपभ्रंश का शाब्दिक अर्थ है— भ्रष्ट भाषा अर्थात संस्कृत के मानक शब्दों से विकृत हुए शब्द। अपभ्रंश के बाद की भाषा को पर्याय अवहट्ट कहा जाता हैं। अपभ्रंश तथा अवहट्ट दोनों ही भाषाओं में उच्चारण (ध्वनि), व्याकरण तथा शब्दावली के स्तर पर गहरा संबंध है। इसलिए कुछ विद्वानों ने इन दो भाषाओं को एक ही माना है।
  • उच्चारण के स्तर पर संबंध 
    • स्वर तथा व्यंजन वर्ण अवहट्ट में वही हैं जो अपभ्रंस में थे इसके अलावा अवहट्ट में ‘ए’ ‘औ’ तथा मिलते हैं जैसे बैल, चौड़ा।
    • ‘ऋ’ का उच्चारण दोनों ही जगहों पर अ, इ, उ, ए में परिवर्तित हो गया जैसे कृष्ण>कणह, ऋण>रिण।
    •  अपभ्रंश में प्रारंभ हुई स्वरभक्ति (व्यंजनों के मध्य स्वर लाने की प्रक्रिया) अवहट्ट में और अधिक विकसित हुई। जैसे क्रिया>किरिया
    • अनुनासिकता अपभ्रंश की विशेष प्रवृत्ति है जो अवहट्ट में अत्यधिक बढ़ जाती है जैसे अश्रु>अंसु चलहीं>चलही।
    • दोनों में ही ‘ण’ मिलता है जबकि ‘न’ नहीं मिलता।
  • व्याकरण के स्तर पर संबंध 
    • अपभ्रंश में प्रारंभ हुई निर्विभक्ति की प्रवृत्ति अवहट्ट में भी जारी रही।
    • दोनों में ही तीन लिंगों के स्थान पर दो लिंग (पुल्लिंग तथा स्त्रीलिंग) की व्यवस्था बनी रही।
    • अपभ्रंश तथा अवहट्ट दोनों में दो ही व्यंजन (एकवचन तथा बहुवचन) को स्वीकार किया गया।
    • कृदंतीय क्रियाओं का आरंभ अपभ्रंश में किंतु अवहट्ट में इसका तीव्र विकास हुआ जैसे देखत, चाखत आदि।
  •  शब्दावली के स्तर पर संबंध
    •  दोनों ही भाषाओं में तत्सम शब्दों की अपेक्षा तद्भव शब्दों की अधिकता रही।
    • देशज तथा विदेशज शब्द भी अपभ्रंश तथा अवहट्ट में काफी मात्रा में मिलते हैं जैसे तड़पड़ई (देशज) कमाल (विदेशज)।
         इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृत के सरलीकरण की जो प्रक्रिया पाली में शुरू हुई थी, वह अपभ्रंश में आकर हिंदी के निकट होने लगी और अवहट्ट में उसके विकास की गति और अधिक हो गई।

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