“सौन्दर्य का ऐसा साक्षात्कार मैने कभी नहीं किया। जैसे वह सौन्दर्य अस्पष्ट होते हुए भी माँसल हो। मैं उसे छू सकती थी, पी सकती थी। तभी मुझे अनुभव हुआ कि वह क्या है जो भावना को कविता का रूप देता हैं। मैं जीवन में पहली बार समझ पायी कि क्यों कोई पर्वत शिखरों को सहलाती में मालाओं में खो जाता है, क्यों किसी को अपने तन मन की अपेक्षा आकाश में बनते मिटते चित्रों का इतना मोह हो रहा हैं।” (2018)
संदर्भ :- प्रस्तुत व्याख्यांश मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के प्रथम अंक से लिया गया है। जिसकी रचना 1958 में की गई।
प्रसंग :- प्रस्तुत कथन मल्लिक का है जो उसने अपनी माता अम्बिका से कहा है। मल्लिका आषाढ़ के पहले दिन की वर्षा में कालिदास के साथ भीगकर वापिस आती है। कालिदास के साथ रहने के कारण वह बहुत प्रसन्न है तथा प्रसन्नता भरे अनुभवों से आषाढ़ के बादलो की सुन्दरता का वर्णन करती है।
व्याख्या:– आज प्रकृति के जिस अपूर्व सौन्दर्य का मुझे साक्षात्कार हुआ है, वह क्या कभी भुलाने की वस्तु है। सौन्दर्य की ऐसी व्यापक, गंभीर, स्निग्ध और उत्प्रेरक अनुभूति मुझे इसके पहले कभी नही हुई। वर्षा का वह सौन्दर्य इतना स्थूल, सूक्ष्म और अस्पृश्य था फिर भी वह उसे छू सकती थी. उसे देख सकती थी और अपने मन व प्रांणो भर सकती थी। वहा उसे इस बात का अनुभव हो गया कि भावना किस प्रकार कविता का रूप लेती है और कवि या सौन्दर्य-प्रेमी व्यक्ति पर्वत शिषरों को सहलाती हुई घन-घटाओ के रूप को देखकर आत्म-विभोर क्यों हो जाता है। अर्थात प्रकृति में मनुष्य के मन को रमाने की अद्भूत शक्ति छिपी होती हैं।
विशेष:–
1) प्रस्तुत अवतरूण में मल्लिका व कालिदास के सबंधो की प्रेम भावना का वर्णन हुआ है।
2) मल्लिका ने प्रकृति के उस रूप का साक्षात्कार किया है जो कवि और कलाकार की प्रेरणा बनता हैं।
3) उत्प्रेक्षा और मानवीकरण अलंकारों का सुन्दर प्रयोग हुआ हैं।
4) गद्यांश की भाषा प्रवाहमयी खड़ी बोली हिंदी हैं।
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