“अब भी उत्साह का अनुभव नहीं होता...? विश्वास करो तुम यहां से जाकर भी यहां से अलग नहीं होओगे। यहां की वायु, यहां के मेघ और यहां के हरिण, उन सबको तुम साथ ले जाओगे... और मैं भी तुमसे दूर नहीं होऊगी। जब भी तुम्हारे निकट होना चाहूंगी, पर्वत शिखरों पर चली जाऊगी और उड़कर आते मेघों में घिर जाया करूंगी।”
संदर्भ :- प्रस्तुत व्याख्यांश मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के प्रथम अंक से लिया गया है। जिसकी रचना 1958 में की गई।
प्रसंग: मल्लिका कालिदास को इस बात के लिए प्रेरित करती है कि वह उज्जयिनी अवश्य जाये और वहां जाकर राजकवि का सम्मान ग्रहण करे। कालिदास फिर भी उज्जयिनी नहीं जाना चाहता। मल्लिका यह समझती है कि सम्भवत: कालिदास उसे छोड़ न पाने के कारण उज्जयिनी नहीं जाना चाहता इसलिए वह जोर देकर कहती है-
व्याख्या : मल्लिका कहती है क्या तुम्हे मेरी आंखो में यह भाव नहीं दिख रहा कि मैं तुम्हें हृदय से उज्जयिनी भेजना चाहती हूं। वहां जाकर तुम गौरख प्राप्त करोगे और नया साहित्य रचोगे। इसलिए वह कालिदास को विश्वास दिलाती है. कि तुम वहां जाकर भी मुझसे अलग नही होगे। मैं सदैव तुम्हारे निकट रहूंगी। जिस वातावरण मैं तुम जी रहे हो वह सब उसके साथ वहाँ जाएगा और कभी भी अकेलेपन का एहसास नही होगा। यहां का वातावरण तो कालिदास की स्मृति में रहेगा ही, मल्लिका भी उससे दूर नहीं होगी सदैव उसके हृदय में रहेगी। वह जब भी कालिदास से मिलना या निकट होना चाहेगी तो पर्वत शिखरो पर चली जाएगी जहां उसकी स्मृतिया बिखरी होगी और वह काले मेघो से घिर कर अपने प्रियतम के सानिध्य सुख का अनुभव करेगी
विशेष.
- मल्लिका की कोमल, पवित्र और निश्चल भावनाओं का सुन्दर दिग्दर्शन इस गद्यश में हुआ है।
- मल्लिका के सात्विक प्रेम का परिचय इस प्रसंग में हमें मिलता है।
- वह स्वयं पीड़ा का वरण करते हुए भी कालिदास को उज्जयिनी भेजना चाहती है क्योकि उसे वह गौरव प्राप्त हो जिसका वह सच्चा अधिकारी है।
- भाषा काव्यमयी, प्रवाहमयी और संस्कृत के तत्सम शब्दो से परिपूर्ण खड़ी बोली हिन्दी है।
No comments:
Post a Comment