किसी भी लिपि का विकास भाषा के विकास के बाद ही होता है। लिपियों के विकास के क्रम को देखें तो सबसे पहले चित्रालिपि फिर सूत्रलिपि, प्रतीकात्मक लिपि तथा अक्षरात्मक लिपि से होते हुए अंत में वर्णनात्मक लिपि का विकास होता है।
देवनागरी लिपि एक अक्षरात्मक लिपि है क्योंकि इसके सारे व्यंजन, स्वरों के माध्यम से ही उच्चारित होते हैं। भारत में लिपि के विकास में ब्राह्मी लिपि को एक प्रस्थान बिंदु माना जाता है, तथा इसकी परंपरा में ही आगे चलकर देवनागरी लिपि का विकास हुआ है।
ब्राह्मी लिपि के दो रूप प्रचलित है – दक्षिणी ब्राह्मी तथा उत्तरी ब्राह्मी। दक्षिणी ब्राह्मण से द्रविड़ परिवार की लिपियों का विकास हुआ तथा उत्तरी ब्राह्मी से उतरी भारतीय लिपि का लिपियों का विकास हुआ।
उत्तरी ब्राह्मी से ही गुप्त काल में गुप्त लिपि का विकास हुआ, जो टेढ़े मेढ़े अक्षरों से युक्त होने के कारण इसे कुटिल लिपि कहा जाने लगा।
कुटिल लिपि को कश्मीर के पंडितो ने शारदा लिपि कहा। वही गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश में इसे प्राचीन नागरी कहा गया। इसी प्राचीन नागरी से आधुनिक आर्य भाषाओं जैसे हिंदी, गुजराती, मराठी इत्यादि के लिए अलग-अलग लिपियां विकसित हुई। हिंदी भाषा के लिए विकसित लिपि को ही देवनागरी लिपि कहा गया। देवनागरी लिपि के प्रयोग का पहला उदाहरण सातवीं शताब्दी में हर्षवर्धन के समय में मिलने लगता है। 19वीं 20वीं सदी में इसके मानकीकरण के प्रयास के बाद यह अखिल भारतीय लिपि के रूप में विकसित होने लगी।
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