"यह मेरे अभाव की संतान हैं। जो भाव तुम थे, वह दुसरा नहीं हो सका, परन्तु अभाव के कोष्ठ में किसी दूसरे की जाने कितनी कितनी आकृतियां है। जानते हो मैने अपना नाम खोकर एक विशेषण उपार्जित किया है और अब में अपनी दृष्टि में नाम नहीं, केवल विशेषण हूं।"
संदर्भ:- प्रस्तुत व्याख्यांश मोहन राकेश द्वारा लिखित नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ के तीसरे अंक से लिया गया है। जिसकी रचना 1958 में की गई।
प्रसंग:- मल्लिका का प्रेमी कालिदास कश्मीर का शासन-भार त्यागने के बाद मल्लिका से मिलने आता लेकिन मल्लिका विलोम के साथ अपना घर बसा लेती है जिससे उनकी एक कन्या भी हुई है। कालिदास के पूछने पर वह उसी कन्या की ओर संकेत करती हुई अपनी दुर्भाग्यपूर्ण स्थिती का वर्णन करती हैं–
व्याख्या :- मैं तुम्हे यह बता दूं कि जिस अभावग्रस्त जीवन के अभिशाप को मैने झेला है, यह उसी अभाव की संतान है। मैंने अपने हृदय में जिस भावना के रुप में तुम्हे स्थान दिया था। उस पर कोई भी अन्य व्यक्ति अधिकार नहीं कर सका। तुम वहाँ थे और आज भी तुम्ही वहां विराजमान हो। लेकिन इस शरीर को जो अभाव क्षत-विक्षत कर रहे थे। उसमें मेरी साधनहीनता पर दया करने वाले न जाने कितने लोगो की आकृतियां छाई हुई हैं। मैं तुम्हे यह भी बता दूं कि अब मेरा कोई नाम नहीं रह गया है। मेरा असली नाम समाप्त हो चुका है और अब मैं केवल एक विशेषण - ‘वैश्या’ के नाम से जानी जाती हूं।
विशेष:-
- उक्त पंक्तियों में मल्लिका की हार्दिक व्यथा, पीड़ा और निराशा साकार हो उठी है।
- कालीदास की उपेक्षा ने मल्लिका को तोड़कर रख दिया हैं।
- मल्लिका का उदात्त प्रेम वर्णित हुआ है कि मल्लिका वैश्या का विशेषण स्वीकार करने के बाद भी कालिदास के प्रति प्रेम का त्याग नहीं करती।
- गद्यांश की भाषा संस्कृत के तत्सम शब्दों से युक्त बड़ी बोली हिन्दी है।
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